भारत के सांस्कृतिक विकास में गुरुकुल शिक्षा ; एक विवेचनात्मक अध्ययन
प्राचीन काल से हमारे देश में शिक्षा को एक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है. हमारे भारत में गुरुकुल परम्परा सबसे पुरानी व्यवस्था है. गुरुकुल प्रणाली का सबसे पहला उल्लेख वेदों और उपनिषदों में मिलता है।शिक्षा की यह प्रणाली प्राचीन काल से अस्तित्व में थी।
यह सर्वविदित है कि यूरोप, मध्य पूर्व और पुर्तगाल जैसे अन्य देशों के लोग गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त करने के लिए भारत आते रहते थे। प्राचीन काल में भारत में प्रचलित प्रसिद्ध शिक्षा प्रणालियों में से एक गुरुकुल प्रणाली थी।
’गुरुकुलम् शिक्षा पद्धति” संपूर्णतः आचार्य केन्द्रित और पंचकोश विकास के आधार पर खडी थी। गुरुकुल के हर क्रियाकलाप, नियम एवं अनुशासन, इसी पंचकोश विकास को ध्यान में रखते हुए बनाये जाते थे। इसी शिक्षा से शिक्षित एवं दीक्षित होकर अनेक चरित्रोंने इतिहास में अमरत्व प्राप्त किया है। ऐसे महापुरुषों में भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध, महावीर, आचार्य जीवक, आचार्य चाणक्य इसके नेत्रदीपक दृष्ट॑त है।
गुरुकुल प्रणाली क्या है?
गुरुकुल का अर्थ है वह स्थान या क्षेत्र, जहां गुरु का कुल यानी परिवार निवास करता है. प्राचीन काल में शिक्षक को ही गुरु या आचार्य मानते थे और वहां शिक्षा ग्रहण करने वाले विद्यार्थियों को उसका परिवार माना जाता था. यह एक आवासीय विद्यालय प्रणाली थी जिसकी उत्पत्ति भारतीय उपमहाद्वीप में लगभग 5000 ईसा पूर्व की है। जहां छात्रों को विभिन्न विषयों और एक सुसंस्कृत और अनुशासित जीवन जीने के तरीके के बारे में पढ़ाया जाता था।
जहाँ शिष्य 5 वर्ष की आयु में आते थे और 21 वर्ष की आयु तक निवास करते थे लगभग 15 वर्षों तक जब तक उनकी शिक्षा पूरी नहीं हो जाती तब तक ब्रह्मचर्य का पालन करते थे.गुरुकुल में सभी को समान माना जाता था और गुरु (शिक्षक) के साथ-साथ शिष्य (विद्यार्थी) एक ही घर में रहते थे या एक दूसरे के पास रहते थे।
स्त्री और पुरुषों की समान शिक्षा को लेकर गुरुकुल काफी सक्रीय थे. उदाहरण: उत्तररामचरित में वाल्मीकि के आश्रम में लव-कुश के साथ पढ़ने वाली आत्रेयी नामक स्त्री का उल्लेख है. इससे पता चलता है की सह-शिक्षा भारत में प्राचीन काल से रही है. पुराणों में भी कहोद और सुजाता, रहु और प्रमद्वरा की कथाएँ वर्णित हैं. इनसे ज्ञात होता है कि कन्याएं बालकों के साथ पढ़ती थी और उनका विवाह युवती हो जाने पर होता था.
आगे चलकर लड़के और लड़कियों के गुरुकुल अलग-अलग हो गए थे, जिस प्रकार लड़कों को शिक्षा दी जाती थी उसी प्रकार से लड़कियों को भी शिक्षा दी जाती थी, शास्त्र–अस्त्र की शिक्षा तथा वेदों का ज्ञान दिया जाता था.गुरु और शिष्य का यह रिश्ता इतना पवित्र था गुरु के महत्व को प्रतिपादित करने के लिए कहा गया है कि गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु गुरु देवो महेश्वर, गुरु साक्षात् परमं ब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नम:|
छात्रों से कोई शुल्क नहीं लिया जाता था। हालांकि छात्र को गुरुदक्षिणा देनी पड़ती थी जो शिक्षक को दिए जाने वाले सम्मान का प्रतीक था। यह मुख्य रूप से उनके विशेष कौशल या कुछ धन के रूप में या एक विशेष कार्य के रूप में होता था जिसे छात्र को गुरु के लिए करना पड़ता था। और समावर्तन संस्कार (दीक्षांत समारोह) संपन्न कर उसे अपने परिवार को भेज दिया जाता था.
वर्तमान समय में गुरुकुल प्रणाली का महत्व:-
गुरु’ के आचरण द्वारा विद्यार्थी हर एक आयामों की और जीवन व्यवहार की शिक्षा पाते थे। इसलिए पढाई का कार्य 4-5 घण्टे नहीं अपितु संपूर्ण दिन-रात, सातों दिन 24 घण्टे चलता था। प्रातः उठ के दंतधावन (दातून) कैसे करना, स्नान कैसे करना, भोजन कब, कैसे करना है? रात में कैसे सोना है? यह सब बताना, यह भी एक प्रकार का शिक्षण ही है। इसलिए ‘श्रीमद् भागवतम्’ में भी ‘कौमारात् आचरेत प्राज्ञ:’ (कौमार) बाल्य अवस्था से ही बुद्धिमान आचार्य के आचरण से आचरण शिक्षा लेते है। गुरु के आचरण से बुद्धिमान शिष्य जीवन की शिक्षा लेते थे। इसलिए पढ़ना केवल सिद्धांत नहीं है, अपितु पूर्ण व्यवहारिक और प्रायोगिक है, जीवनलक्षी है। इस कारण से ही ‘गुरुकुलम् शिक्षण पद्धति’ से पढे हुए विद्यार्थी अपने चरित्र और आचरण से संपूर्ण विश्व को शिक्षण या मार्गदर्शन देने का सामर्थ्य रखते थे।
एतद्देशप्रसूतस्य, सकाशादग्रजन्मन:।स्वं स्वं चरित्र शिक्षेरन्, पृथ्विव्यां सर्वमानवा:।।
इसलिए यहाँ केवल सूखा तत्त्वज्ञान नहीं लेकिन प्रायोगिक तत्त्वज्ञान भी है।गुरुकुलों का मुख्य ध्यान छात्रों को एक प्राकृतिक परिवेश में शिक्षा प्रदान करने पर था जहाँ शिष्य आपस में भाईचारा, मानवता, प्रेम और अनुशासन से रहते थे। विवेकाधिकार और आत्म-संयम,चरित्र में सुधार,मित्रता या सामाजिक जागरूकता,मौलिक व्यक्तित्व और बौद्धिक विकास,पुण्य का प्रसार,आध्यात्मिक विकास,संस्कृति का संरक्षण आवश्यक शिक्षाएं आदि के साथ-साथ विज्ञान, गणित,रसायन,खगोलविज्ञान आदि जैसे विषयों में समूह चर्चा, स्व-शिक्षा आदि के माध्यम से होती थीं।
इतना ही नहीं बल्कि कला, खेल, शिल्प, गायन पर भी ध्यान दिया गया जिससे उनकी बुद्धि और आलोचनात्मक सोच विकसित हुई। योग, ध्यान, मंत्र जप आदि गतिविधियों ने सकारात्मकता और मन की शांति पैदा करने और उन्हें सक्षम बनाने में योगदान देते थे।
जीवन उपयोगी विषयों को “विद्या’ एवं जीविका उपयोगी विषयों को “कला” कहा जाता है। जीवन उपयोगी विद्या के 14 और जीविका उपयोगी कला के 64 प्रकार है।
जीवन उपयोगी विद्या के 14 प्रकार है:
1) ऋग्वेद,
2) यजुर्वेद,
3) सामवेद,
4) अथर्ववेद यह 4 वेद है,
5) छंद,
6) कल्प,
7) निरुक्त,
8) ज्योतिष,
9 ) शिक्षा,
10) व्याकरण, यह 6 वेदांग है और
11) न्यायशास्त्र,
12) मीमांसाशास्त्र,
13) धर्मशास्त्र,
14) इतिहास पुराण इस प्रकार 14 विद्या है।
इन 64 कलाओं के नाम भी उपलब्ध है। उसमें से कुछ कलाएँ लुप्त हों गई कुछ कलाएँ प्रायः लुप्त होने को है। कुछ कलाएँ आज भी प्राप्त है।उन्हें व्यावहारिक कौशल प्रदान करने के उद्देश्य से दैनिक कार्यों को स्वयं करना भी अनिवार्य था। इन सभी से व्यक्तित्व के विकास में मदद की और उनमें आत्मविश्वास, अनुशासन की भावना, बुद्धि को बढ़ाया जो आज भी आने वाली दुनिया का सामना करने के लिए आवश्यक है।
रास बिहारी शरण पाण्डेय